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Thursday 2 October 2014

*** हाँ, चूक गया मैं... ***



मैं अपने
शब्द- जाल में
तुम्हें उलझाए रखने की
क्यों कर
कोई कोशिश करता;
तुम्हारे सैकड़ों अंतर्द्वंद्व ही
तुम्हें
अपने आलिंगन में
दबा लेने की
हर सम्भव,
जुगत में जब रहे!

रहा जो मैं
हमेशा ही बेकल
ख़यालों की तड़पती हुई
दुनिया को
सजाने में तुमसे इतर
और बाक़ी छद्म
तुष्टियों से बेपरवाह
जिसे तुमने ही कभी
मुझे वायदों में सौंपा था.

तुम काश मान भी लेती
मेरी ज़िन्दगी के
कुछ अस्पृश्य भावों की
उस संकीर्ण और
लाचार उधेड़बुन को
कि जिसमें मेरे
बेदम वजूद का
अपना ही इक
अलग- थलग इतिहास
सदा पोषित रहा है.***

     --- अमिय प्रसून मल्लिक.

(Pic courtesy- www.google.com)

Tuesday 30 September 2014

*** पा लिया अब तुमको ***



सर्द होती यादें तेरी
ज़िन्दगी के
उसी अनजान
पहलू की तरह हैं
कि जिनसे दो दिनों का
लेकर क़र्ज़
मैं तेरे
ख़यालों से लबरेज
अपनी मौजूँ दुनिया में
अरसे से अकेला ही जिया.

तुम,
आ भी जाती
मेरे ख़यालों की
सारी सीमाओं को लाँघकर
पर जो हाशिए पर
तुमने ही
कभी लकीर खींची थी;
उसी को अपनी
अधूरी पहचान में लपेटकर
तुम्हें पा लेने की
ख़ुद से ही
मैंने आज फिर
अनुशंसा कर ली है.***

    --- अमिय प्रसून मल्लिक.


(तस्वीर साभार: www.paintingsilove.com )

Sunday 28 September 2014

*** ...तो तुम जीत गए ***




देखो,
मिलन- बिछोह का
आज कैसा सुन्दर दृश्य
इन बादलों में उभरा है
तुम इन्हें
काली घटाओं का
हमेशा नाम जो देती हो.

तुम्हारी यादों का
ये,
इक भँवर- सा रहा है
कि हमारे प्रेम का
इतिहास ही
कई मुमूर्ष कलंकों से
लिखा गया था;
सो, उन्हीं
बंद शिकस्तों में
मैंने
तुम्हारे प्रेम की जीत की
अपनी मृत होती 
यादों से सजाकर
आज फिर
मुस्तैद मुनादी करवा दी है.***

      --- अमिय प्रसून मल्लिक.

*** तुम आओगे तो...! ***




चलो न,
तुम्हें भी लिए चलती हूँ
समंदर के
उसी किनारे पे
कि जहाँ मोतियों- सी
पानी की
अथक बूँदों को
ले- लेकर तुम
अपने सपने गिनते थे!

आज भी
उसी किनारे पे
तुम्हारे
हज़ारों मोती
वहाँ ऐसे ही
अब भी,
सागर में विलीन पड़े हैं

कि तुम
कभी तो
यहां टूटे ख़्वाबों को
इन रेतों में
संभालने की
नयी टीस के संग
भरसक मेरी तरह
कोई तो जुगत करोगे.***
   
               --- अमिय प्रसून मल्लिक

Friday 29 August 2014

*** घर वही अच्छा है ***



सुनो,
तुम्हारी बातों से
मैंने
अपने घरौंदे से
आज फिर
लिपटकर देखा है.

इसमें अब
कहाँ कोई
पहले की तरह
तेज़, मदमाती गंध है
वो तेरे संसर्ग की!

रिश्तों की सड़ांध का
यही भरसक
इस छोटे घर में
बेसुध मंज़र है.

घर तो वही अच्छा है,
क़रीब हो
बस एक अस्पताल जहाँ से,
और बेटी के
पढ़- लिख जाने का
पास ही एक स्कूल मिल जाए...***

   --- अमिय प्रसून मल्लिक.

(चित्र साभार: गूगल)

*** अपने हो सब ***



तुमसे
मेरी रातों की
बहुत उधेड़बुन है.

याद है,
कहते थे तुम
होगा नहीं
कहीं कोई भी,
तुम्हारे साथ के अलावा.

और उसी भरम में
सबों को
वक़्त की
सुखद चाशनी में
लपेटकर
अपनी अतृप्त इच्छाओं से,
तेरे प्रेम- दर की
ज़ंग खायी
हाँ मैं,
छिटकनी बन गयी थी.

कि रहोगे सब
हिफाज़त से ही
नहीं लगेगी ज़ंग
इस ख़याल में कभी
अब
ये यक़ीन हो चला है.***
  
--- अमिय प्रसून मल्लिक.

(चित्र साभार: गूगल)

*** अजनबी ***



तुम आज भी
घर के
कहाँ क़रीब हो,
मुज़रिम मैं ही नहीं
अपने रिश्तों के दरम्याँ!

जिसने कभी
घर की कोई
परवाह नहीं की,
कहने को हमेशा
भीड़ में पताका लेकर
घर से
दूर हो जाने की
कसक लहराता रहा.***

         --- अमिय प्रसून मल्लिक.

(चित्र साभार: गूगल)