तुमसे
मेरी रातों की
बहुत उधेड़बुन है.
याद है,
कहते थे तुम
होगा नहीं
कहीं कोई भी,
तुम्हारे साथ के अलावा.
और उसी भरम में
सबों को
वक़्त की
सुखद चाशनी में
लपेटकर
अपनी अतृप्त इच्छाओं से,
तेरे प्रेम- दर की
ज़ंग खायी
हाँ मैं,
छिटकनी बन गयी थी.
कि रहोगे सब
हिफाज़त से ही
नहीं लगेगी ज़ंग
इस ख़याल में कभी
अब
ये यक़ीन हो चला है.***
--- अमिय प्रसून मल्लिक.
(चित्र साभार: गूगल)
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