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Friday 29 August 2014

*** घर वही अच्छा है ***



सुनो,
तुम्हारी बातों से
मैंने
अपने घरौंदे से
आज फिर
लिपटकर देखा है.

इसमें अब
कहाँ कोई
पहले की तरह
तेज़, मदमाती गंध है
वो तेरे संसर्ग की!

रिश्तों की सड़ांध का
यही भरसक
इस छोटे घर में
बेसुध मंज़र है.

घर तो वही अच्छा है,
क़रीब हो
बस एक अस्पताल जहाँ से,
और बेटी के
पढ़- लिख जाने का
पास ही एक स्कूल मिल जाए...***

   --- अमिय प्रसून मल्लिक.

(चित्र साभार: गूगल)

*** अपने हो सब ***



तुमसे
मेरी रातों की
बहुत उधेड़बुन है.

याद है,
कहते थे तुम
होगा नहीं
कहीं कोई भी,
तुम्हारे साथ के अलावा.

और उसी भरम में
सबों को
वक़्त की
सुखद चाशनी में
लपेटकर
अपनी अतृप्त इच्छाओं से,
तेरे प्रेम- दर की
ज़ंग खायी
हाँ मैं,
छिटकनी बन गयी थी.

कि रहोगे सब
हिफाज़त से ही
नहीं लगेगी ज़ंग
इस ख़याल में कभी
अब
ये यक़ीन हो चला है.***
  
--- अमिय प्रसून मल्लिक.

(चित्र साभार: गूगल)

*** अजनबी ***



तुम आज भी
घर के
कहाँ क़रीब हो,
मुज़रिम मैं ही नहीं
अपने रिश्तों के दरम्याँ!

जिसने कभी
घर की कोई
परवाह नहीं की,
कहने को हमेशा
भीड़ में पताका लेकर
घर से
दूर हो जाने की
कसक लहराता रहा.***

         --- अमिय प्रसून मल्लिक.

(चित्र साभार: गूगल)