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Thursday 2 October 2014

*** हाँ, चूक गया मैं... ***



मैं अपने
शब्द- जाल में
तुम्हें उलझाए रखने की
क्यों कर
कोई कोशिश करता;
तुम्हारे सैकड़ों अंतर्द्वंद्व ही
तुम्हें
अपने आलिंगन में
दबा लेने की
हर सम्भव,
जुगत में जब रहे!

रहा जो मैं
हमेशा ही बेकल
ख़यालों की तड़पती हुई
दुनिया को
सजाने में तुमसे इतर
और बाक़ी छद्म
तुष्टियों से बेपरवाह
जिसे तुमने ही कभी
मुझे वायदों में सौंपा था.

तुम काश मान भी लेती
मेरी ज़िन्दगी के
कुछ अस्पृश्य भावों की
उस संकीर्ण और
लाचार उधेड़बुन को
कि जिसमें मेरे
बेदम वजूद का
अपना ही इक
अलग- थलग इतिहास
सदा पोषित रहा है.***

     --- अमिय प्रसून मल्लिक.

(Pic courtesy- www.google.com)