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Sunday 18 January 2015

*** नए गुमान से... ***



यकायक ही
दिग्भ्रमित युवा होकर,
चीरता हुआ वो
गढ़ता रहा स्थूल विचार,
यहाँ बेदम उम्मीदों के
बदहवाश हाशिये पर...

कि तल्ख़ होते यौवन में
उसने स्वयं ही
अपने उबलते खून की
विद्रोह- सी झलक ली है;
और किया है
बेशर्त ही
उसूलों का अब चीत्कार- समर्पण.

जो मिली है अब
गुदते हुए अतीत पर
आधुनिकता की
सिलवटों- सी बेशक़ीमती नक़्क़ाशी! ***
            --- अमिय प्रसून मल्लिक.