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Sunday 28 September 2014

*** ...तो तुम जीत गए ***




देखो,
मिलन- बिछोह का
आज कैसा सुन्दर दृश्य
इन बादलों में उभरा है
तुम इन्हें
काली घटाओं का
हमेशा नाम जो देती हो.

तुम्हारी यादों का
ये,
इक भँवर- सा रहा है
कि हमारे प्रेम का
इतिहास ही
कई मुमूर्ष कलंकों से
लिखा गया था;
सो, उन्हीं
बंद शिकस्तों में
मैंने
तुम्हारे प्रेम की जीत की
अपनी मृत होती 
यादों से सजाकर
आज फिर
मुस्तैद मुनादी करवा दी है.***

      --- अमिय प्रसून मल्लिक.

7 comments:

  1. मुस्तैद मुनादी :)
    कहाँ से लाते हो सर .......इतने प्यारे से शब्द
    साधुवाद !!

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  2. शुक्रिया मुकेश जी, आपका बड़प्पन है कि मुझमे आपको एक कवि दिखता है.

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  3. रूपचंद सर,आपका भी भी दिल से शुक्रिया! मैंने भी विजेट लगा लिया है अपने ब्लॉग्स पर.

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  4. हर बार की तरह..बेहत'रीन अंत !.अद्भुत शब्द-सामर्थ्य !

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