चलो न,
तुम्हें भी लिए चलती हूँ
समंदर के
उसी किनारे पे
कि जहाँ मोतियों- सी
पानी की
अथक बूँदों को
ले- लेकर तुम
अपने सपने गिनते थे!
आज भी
उसी किनारे पे
तुम्हारे
हज़ारों मोती
वहाँ ऐसे ही
अब भी,
सागर में विलीन पड़े हैं
कि तुम
कभी तो
यहां टूटे ख़्वाबों को
इन रेतों में
संभालने की
नयी टीस के संग
भरसक मेरी तरह
कोई तो जुगत करोगे.***
बढ़िया रचना।
ReplyDeleteशुक्रिया रूपचन्द्र जी!
ReplyDelete'कोई तो जुगत करोगे'..बहुत सुंदर !
ReplyDeleteपीले रंग से लिखा आपका नाम, ठीक से दिख नहीं रहा, कोई और रंग का चयन करें तो बेहतर लगेगा. :)
शुक्रिया प्रीति जी! आपकी सलाह सर आँखों पर. :)
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